पहाड़ को आँखों में
उलीचा नहीं जा सकता
उसे करना पड़ता है प्रतिष्ठित पुतलियों पर
फिर तो हमारे जीवन के अवसाद को
झेलने के लिए तैय्यार हो जाता है पहाड़
वह कभी नहीं लौटाता है दोस्तों को
खाली हाथ
अपनी कमर को
नम्र बनाकर जब
पहाड़ के घुटनों तक पहुंचा
तो पाया कि
कविता में प्रवेश के लिए
जिद्द मचा रही थी नदी
पहाड़ पर कमर झुकाकर
लिखी गयी नदी की कविता में
नदी की तरह थरथराहट नहीं थी
कविता को ही नहीं
धरती को भी
कंपने से बचाता है पहाड़
प्रभात सरसिज
६ जुलाई, १९९२
No comments:
Post a Comment