Saturday, 24 September 2011

उल्का की तरह

....... और पूरी तरह तनने के पहले ही वह टूट गया था 
फिर प्रार्थना की मुद्रा में बैठ 
छायाओं के
घटने और 
बढ़ने की
क्रिया को महसूस करने लगा 

कोई तिलिस्म हो या कोई तीक्ष्ण आवेग या 
कोई और
बलवती इच्छा  /  बराबर उसका कद घटता जाता है हर मर्मान्तक आवाज 
के आगे और तनने लग जाता है 
अनिवार्य स्थितियों का निरीक्षण करने के लिए  /  सच कहूँ 
तो मन करता है कि तमाम 
शताब्दियों पर 
लगा दूँ निषेध   -    जब तक कि 
सभी सूजे हुए बदन सेंक न दिए जाएँ  /  पर कुछ नहीं 
होता है  आहिस्ते - आहिस्ते   /   हर कुछ के बेल्लाग हो जाने के कारण  
वह बनता रहा 
अंतर्विरोधों का प्रपात    और 
विकलांग दशकों पर 
चाकू चलाकर 
यह साबित करने में 
मशगूल रहा है कि पकी फसलों पर नजरें गड़ाये रहना आज का 
सबसे बड़ा षड़यंत्र है /
हर कलावीथियों और परसंडा* के त्रिपुर-सुंदरी मंदिर कि सीढियों पर 
अपनी जलती हुई आँखों को सुलगाकर 
उसने 
अमूर्त जंगल की ओर भागने का प्रयास किया पर 
उसके ही नाखूनों की चमक ने 
उसे भीड़ में रहने को बाध्य किया /
खैराती लंगर से लेकर 
उपभोक्ताओं की कतार में वह खड़ा रहा अब तक /
आप ही बताइए भाई जी !   वह कैसे जान सकेगा 
औरतों की फसल    और 
चाँद शक्ल की रोटी    और
भूगोल की पुस्तक 
और गुब्बारों की उल्टियाँ /
तमाम बत्तियों के गुल होते ही हर पिरामिड पिघलकर 
नदी बन जाते हैं   और 
गायब हो जाते हैं तमाम पत्थरों के ताबूत / झुकता है एक स्वप्न /
बजने लगता है एक सन्नाटा .......
सच्च, ऐसे जुगुरिसत क्षणों में 
मुक्तिबोध की कवितायेँ पढ़ना
सरासर बेईमान बनना होगा / शहर में बहुत -सी बाम्बियाँ खुल आती हैं और 
कोपीन वस्त्र पहनकर उछलते हैं महानगर के औघड़  और जब चुपके से 
रात आईना पर 
उतर आती है तो 
वे / लि / ख / ने लगते हैं परछाइयों की कविता  /  इतना होने पर भी 
कहीं नहीं उगता है कोई शिनाख्त  /  सिवा इसके कि 
एक चमकदार चाक़ू 
सर पर लटका रहता है अबाध  /  जरा सोचिये तो भाई जी !  अगर 
बालूघर के तमाम मुर्दे 
जुलूस में शामिल हो जाएँ तो क्या होगा ?
विश्वास रखिये -
तमाम रंगीन ध्वजाएँ ध्वस्त हो जाएँगी और फिर 
आप तो जानते ही हैं कि
राख का रंग केवल राख ही होता है  /  तुम पहनो वस्त्र 
या आयोजित करो सभाएँ  /  वह बराबर 
घूम रहा है तुम्हारी तलाश में मशाल लेकर /
अब वह नहीं रहा 
यातना हत क्रौंच  /  जिसे 
तुमने छोड़ दिया था 
जलती हुई 
चट्टान पर................
रेलिंग पर झुके हुए प्यार     और 
विवस्त्रा के ब्रा के टूटे हुए हूक    और
पार्क की झाड़ियों की खुसफुसाहट   और   
हाँफती     हुई     गलियाँ       और 
उपासना गृह की बदहवासी /
इन सबों में से 
कोई नहीं बज सकेंगे
पियानो की नसों पर  /  अब 
कोई भी कर्ण नहीं करेगा दान अपने कवच  /  अब वह अहमियत में तनने से पहले 
फिर से टूटा है एक बार  /  पर इस बार 
उल्का की तरह टूटा है और अब वह 
कभी नहीं बैठेगा 
प्रार्थना की मुद्रा में ................

प्रभात सरसिज

* पतसंडा - बिहार का एक गाँव एवं कवि का जन्म-स्थान, जिसे अब गिद्धौर के नाम से जाना जाता है


(कोषा, पटना के जुलाई ७२ अंक में प्रकाशित) 

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