जहाँ भुतहे प्रकम्पन से चटखती
गर्म शालाखों के बगूले
किरयों जैसी धँस-धँस जाती हैं आँखों में
वहाँ केवल मैं होता हूँ, मेरी कविता नहीं होती........
एक चीत्कार के सिलसिले से गुजरता
जलते घर की खिड़कियों की शलाखों -सा टूटता
उस तप्त प्रदेश में निरर्थक
बर्फ की सिल्ली खोजती हुई आँखें और
लगातार विषुवत थपेड़ों से पिघलता हुआ
अपने ही अन्दर कहीं
क्वथनांक की तलाश करता हुआ
केवल मैं होता हूँ, मेरी कविता नहीं होती........
जल रहे दरख़्त की छाया में
तपिश जमा करने का निरर्थक उद्देश्य होते हुए
निश्चित नहीं कर पाया था
कि किस टहनी से चिपट जाऊं ?
खजुराहो कि गुफा में आठ सौ वर्षों से
अपनी पगथलियों पर महावर रचती
उस चिरकुंवारी के वक्ष पर
नख - क्षत कर भाग आया हूँ
इस अंधे शहर में
जहाँ रोशनी के नाम पर सिर्फ चिंगारियाँ हैं..........
कोई नहीं कहती है यहाँ अब
'तेरे बिन सूना पड़ा मधुबन'
न नाचती हुयीं थकती है गोपिकाएँ
न स्लथ जाँघों पर कृष्ण की
मरहमी हथेलियाँ फिसलती हैं
जहाँ तक जुड़ते हैं मेरे पैरों से
धरती, समुद्र और पहाड़
जहाँ तक मेरी किरमियी आँखों में
समां पता है आकाश
वहाँ केवल एक क्लीव अट्टहास गूँजता है
और गूँजता रहता है लगातार .........
सारी की सारी पगथलियाँ झुलस चुकी हैं
और एक लम्बी कतार में
झुके पड़े हैं खपच्चियों जैसे सर
न आदेश बँटता है सर उठाने का
न काटी जाती हैं गरदनें
उन तमाम झुके लोगों के
तमाम अस्थि - योगों पर
फास्फोरस -सा जलता हुआ
केवल मैं होता हूँ, मेरी कविता नहीं होती..........
प्रभात सरसिज
२७ जून, १९७१ को अखिल भारतीय कवि-सम्मलेन (आकाशवाणी) से प्रसारित
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