जिसमें झुण्ड के झुण्ड शब्द
पराजित हो रहे हैं
अपने चमकीले सुख के लिए
कौन पत्ता से पत्ता बजा रहा है
पत्तों से कभी झरझराते थे शब्द
जंगल के आकाश में
शब्द सतरंजी बन बिछ जाते थे
शब्द दे जाते थे संकेत कि
तहलका के साथ आ रहा है बसंत
आत्मनिर्भर ये पेड़
वनस्पतियों के सुख की खातिर
अपनी जड़े उन तक फैला देते थे
आर्द्र-शब्दों को सुन
आभार होती थीं लताएँ
जहाँ शब्द ही होता था अतीत का सूर्य
उन्हें कौन हांक रहा है
भाषा के सरपट बियाबान में
विकलांग हो रहे हैं अर्थों के बीज
माथा थामे बैठे हैं आशय के पहाड़
सिसकियाँ भरती हुयीं व्यंजनाओं की नदियाँ
समेट रही हैं संतान की हड्डियाँ
चिनगियों भरे अन्धकार को
फेंकने वाला सूत्रधार
भारी शातिर मालूम पड़ता है
जिसके पास पहुँच
निर्मूल्य हो रहे हैं प्रार्थना के सभी शब्द
प्रभात सरसिज
२६ अगस्त, १९९४
(समकालीन भारतीय साहित्य, अंक-१०५, जनवरी-फ़रवरी ०३ में प्रकाशित)
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