मेरे झुके कंधे पर
वेदना के जल से
सिंच रहा है कंधा
कविता में सुबकना चाहते हैं गीत
तुम डूबी हो आज अवसाद में
काटे जा रहे हैं जंगल से
जवान पेड़
कुल्हाड़े लपक रहे हैं पेड़ों की जड़ों के पास
लकड़हारे के माथे से
बह रही है पसीने की नदी
लकड़हारे पेड़ काट रहे हैं
अपने वंश के
लोगों के पैर काट रहे हैं लकड़हारे
क्यों नहीं इनकार कर पाते लकड़हारे
कि अपने पैरों पर
अपने कुल-वंश के
घुटनों कमर कंधों पर
नहीं चलाएंगे कुल्हाड़े ?
क्यों नहीं मुड़ रहे कुल्हाड़े उस ओर
जिधर
पेड़ की जगह
मशीन लगाने को तत्पर
प्राक्कलन पर आँख गड़ाए हैं हत्यारे ?
सदियों से जंगल घर था लकड़हारों का
पेड़ थे उनके सगे
शहर के बनिए का कब से हो गया जंगल ?
लकड़हारे से मधु लेकर
बदले में नून देने वाले बनिए
सत्ता के साथ
जंगल पर काबिज हैं
मजबूर है लकड़हारे
अपने ही पैर और भविष्य काट रहे हैं लकड़हारे
तुम जानती हो मजबूरी कि
नगर में बस जाने के बाद भी
पेड़ से रिश्ता रखने वाले कवि ने
क्यों फाँसी लगाकर आत्महत्या कर ली ?
तुम जानती हो मजबूरी
सोच-समझ कर
तुमने आज रखे कपोल
मेरे झुके कंधे पर
वेदना के जल से सिंच रहा है कंधा
गीतों में
पहली बार पेड़ के खिलाफ जाने से
इनकार कर रहे हैं लकड़हारे
गीतों में कुल्हाड़े पेड़ों पर
नहीं करना चाहते अब आघात
खूब सोच-समझ कर
तुमने रखे कपोल
मेरे झुके कंधे पर..............
प्रभात सरसिज
२३ फ़रवरी, १९९२
(२५ सितम्बर, १९९२ को भागलपुर आकाशवाणी से प्रसारित)
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