सुबह से ही पत्तियाँ
फुसफुसा रही हैं आपस में कि
मैत्री से ही समृद्ध होती है दुनिया
पत्तियों की
इस कोमल गूंज के
गुरु - स्वर से
आतंकित हुए हैं अदूरदर्शी मनसूबेवाज़
वीराने में भी
नहीं होता है मूक रात का संगीत
बांसुरी के मंद सुरों में
जैसे ही गूंथते मानव-स्वर कि
नदियाँ बंद करती हैं धमकाना
देखती हैं नदियाँ मलमल के
बादलों से जाज्वल्यमान आकाशगंगा को
तो तरंगें सजाने लग जाती हैं
किनारों को फेन की झालरों से
जलागार की
अंधकारमय लहरियों में
प्रतिबिम्बित होने लगती है चाँद की तश्तरी
अरगनी चढ़
गौरैया कहती है -
'मुझसे डरने लगे तो कर ली जई की बोवाई'
गौरैया कहती है -
उठो,
पत्तियाँ आपस में फुसफुसा रही हैं
कोहनियों पर आस्तीनें चढ़ाने का
यही उपयुक्त समय है
पत्तियाँ कह रही हैं -
जल्दी करो,
मैत्री से ही समृद्ध होती है दुनिया
इधर फुसफुसा रही हैं पत्तियाँ
उधर
हिलने लगे हैं अदूरदर्शी मनसूबेवाज के दाँत
प्रभात सरसिज
१७ अक्टूबर, १९९४
No comments:
Post a Comment