गाँव को भोर का स्वागत करना है
निद्रामग्न गाँव के
अलसतन को
दुलार रहा है निर्मल मंद पवन
ओंस-सिक्त शीतलता से
लरज रहा है गाँव का बदन
बगल की पहाड़ी नदी का
कल-कल करता जलप्रवाह किसानों को
बुला रहा है अपने
वक्ष पर झुकने के लिए
नदी - तल में
मर्मर ध्वनि करते हैं कंकड़
अद्भुत अतीत से
उच्चरित होते आये हैं ये स्वर
किनारे की धार को
जगह - जगह रोक रही हैं बनस्पतियाँ
पानी पुलकित हो रहा है -
बनस्पतियों की जड़ों के पास डबरे बनाता
शरद के भोर के
अगम्य आगमन की पदचाप
साफ़-साफ़ सुनाई पड़ रही है
जाग रहा है गाँव
प्रभात सरसिज
३१ अक्टूबर, १९९४
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