Saturday, 17 September 2011

अबंध्य है धरती

जहाँ हल नहीं चले
जहाँ धरती
सदियों से
प्रतीक्षा कर रही है स्वामी की 
जहाँ जल-वर्षण से
बाबड़ियाँ भर भी नहीं पातीं कि
सुकड़ जाता है पाताल 
ढ़कोस जाता है सूरज का अतोषणीय लालच
जहाँ अभिलषित वस्तुओं की तरह
याद होता है सृजन
वहां भी ओंस को
विदा कर चुकी घास से
सुगंध उठती है
वहां भी धरती की कोंख से
फूटना चाहता है प्रेम का शुभ्र चश्मा
जहाँ नहीं चले अब तक हल
वहां पहुँचना चाहते हैं कपास के बीज
कपास कालीन बन
बिछना चाहते हैं -
हल के स्पर्श से
वंचित धरती पर

प्रभात सरसिज
९ अक्टूबर, १९९४

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