Saturday, 24 September 2011

बसंत है

बसंत है 
झरने से मिल रहे हैं -
असंख्य पक्षियों के बोल,
रुई से बादलों के कोरों से 
घुल रहे हैं 
लौटती सैलानी चिड़ियों के पंख 
दिन में भी 
केशर की क्यारियों में 
बसती है चाँदनी की शीतलता 
लकड़हारों के बच्चों के लिए
पहाड़ भेजते हैं मधु

जंगलों के जर्रों में
बिखर रहे हैं सूखे पत्ते 
सूखे पत्तों से
निकलती हैं चरमराहट की आवाज 
चल रहे हैं हिंस्र भेड़िये
थूथन से जड़ों को 
खोदने में लगे हैं बनैले सूअर 

इधर 
साख-साख के पोरों पर 
चिहुंक रहे हैं असंख्य नए पात 
गीतों में 
प्रवेश करना चाहते हैं गुलमुहर 

प्रभात सरसिज

वहाँ केवल मैं होता हूँ

मैं एक ठोस अँधेरे की तरह छोड़ दिया गया हूँ    और 
जहाँ भुतहे प्रकम्पन से चटखती 
गर्म शालाखों के बगूले
किरयों जैसी धँस-धँस जाती हैं आँखों में 
वहाँ केवल मैं होता हूँ,   मेरी कविता नहीं होती........
एक चीत्कार के सिलसिले से गुजरता 
जलते घर की खिड़कियों की शलाखों -सा टूटता 
उस तप्त प्रदेश में निरर्थक 
बर्फ की सिल्ली खोजती हुई आँखें  और
लगातार विषुवत थपेड़ों से पिघलता हुआ 
अपने ही अन्दर कहीं 
क्वथनांक की तलाश करता हुआ
केवल मैं होता हूँ,  मेरी कविता नहीं होती........
जल रहे दरख़्त की छाया में 
तपिश जमा करने का निरर्थक उद्देश्य होते हुए 
निश्चित नहीं कर पाया था 
कि किस टहनी से चिपट जाऊं ?
खजुराहो कि गुफा में आठ सौ वर्षों से 
अपनी पगथलियों पर महावर रचती 
उस चिरकुंवारी के वक्ष पर 
नख - क्षत कर भाग आया हूँ 
इस अंधे शहर में 
जहाँ रोशनी के नाम पर सिर्फ चिंगारियाँ हैं..........
कोई नहीं कहती है यहाँ अब 
'तेरे बिन सूना पड़ा मधुबन'
न नाचती हुयीं थकती है गोपिकाएँ
न स्लथ जाँघों पर कृष्ण की 
मरहमी हथेलियाँ फिसलती हैं 
जहाँ तक जुड़ते हैं मेरे पैरों से 
धरती,  समुद्र   और  पहाड़ 
जहाँ तक मेरी किरमियी आँखों में 
समां पता है आकाश 
वहाँ केवल एक क्लीव अट्टहास गूँजता है
और गूँजता रहता है लगातार .........
सारी की सारी पगथलियाँ झुलस चुकी हैं 
और एक लम्बी कतार में 
झुके पड़े हैं खपच्चियों जैसे सर 
न आदेश बँटता है सर उठाने का 
न काटी जाती हैं गरदनें
उन तमाम झुके लोगों के 
तमाम अस्थि - योगों पर 
फास्फोरस -सा जलता हुआ 
केवल मैं होता हूँ,  मेरी कविता नहीं होती..........

प्रभात सरसिज


२७ जून, १९७१ को अखिल भारतीय कवि-सम्मलेन (आकाशवाणी) से प्रसारित    

उल्का की तरह

....... और पूरी तरह तनने के पहले ही वह टूट गया था 
फिर प्रार्थना की मुद्रा में बैठ 
छायाओं के
घटने और 
बढ़ने की
क्रिया को महसूस करने लगा 

कोई तिलिस्म हो या कोई तीक्ष्ण आवेग या 
कोई और
बलवती इच्छा  /  बराबर उसका कद घटता जाता है हर मर्मान्तक आवाज 
के आगे और तनने लग जाता है 
अनिवार्य स्थितियों का निरीक्षण करने के लिए  /  सच कहूँ 
तो मन करता है कि तमाम 
शताब्दियों पर 
लगा दूँ निषेध   -    जब तक कि 
सभी सूजे हुए बदन सेंक न दिए जाएँ  /  पर कुछ नहीं 
होता है  आहिस्ते - आहिस्ते   /   हर कुछ के बेल्लाग हो जाने के कारण  
वह बनता रहा 
अंतर्विरोधों का प्रपात    और 
विकलांग दशकों पर 
चाकू चलाकर 
यह साबित करने में 
मशगूल रहा है कि पकी फसलों पर नजरें गड़ाये रहना आज का 
सबसे बड़ा षड़यंत्र है /
हर कलावीथियों और परसंडा* के त्रिपुर-सुंदरी मंदिर कि सीढियों पर 
अपनी जलती हुई आँखों को सुलगाकर 
उसने 
अमूर्त जंगल की ओर भागने का प्रयास किया पर 
उसके ही नाखूनों की चमक ने 
उसे भीड़ में रहने को बाध्य किया /
खैराती लंगर से लेकर 
उपभोक्ताओं की कतार में वह खड़ा रहा अब तक /
आप ही बताइए भाई जी !   वह कैसे जान सकेगा 
औरतों की फसल    और 
चाँद शक्ल की रोटी    और
भूगोल की पुस्तक 
और गुब्बारों की उल्टियाँ /
तमाम बत्तियों के गुल होते ही हर पिरामिड पिघलकर 
नदी बन जाते हैं   और 
गायब हो जाते हैं तमाम पत्थरों के ताबूत / झुकता है एक स्वप्न /
बजने लगता है एक सन्नाटा .......
सच्च, ऐसे जुगुरिसत क्षणों में 
मुक्तिबोध की कवितायेँ पढ़ना
सरासर बेईमान बनना होगा / शहर में बहुत -सी बाम्बियाँ खुल आती हैं और 
कोपीन वस्त्र पहनकर उछलते हैं महानगर के औघड़  और जब चुपके से 
रात आईना पर 
उतर आती है तो 
वे / लि / ख / ने लगते हैं परछाइयों की कविता  /  इतना होने पर भी 
कहीं नहीं उगता है कोई शिनाख्त  /  सिवा इसके कि 
एक चमकदार चाक़ू 
सर पर लटका रहता है अबाध  /  जरा सोचिये तो भाई जी !  अगर 
बालूघर के तमाम मुर्दे 
जुलूस में शामिल हो जाएँ तो क्या होगा ?
विश्वास रखिये -
तमाम रंगीन ध्वजाएँ ध्वस्त हो जाएँगी और फिर 
आप तो जानते ही हैं कि
राख का रंग केवल राख ही होता है  /  तुम पहनो वस्त्र 
या आयोजित करो सभाएँ  /  वह बराबर 
घूम रहा है तुम्हारी तलाश में मशाल लेकर /
अब वह नहीं रहा 
यातना हत क्रौंच  /  जिसे 
तुमने छोड़ दिया था 
जलती हुई 
चट्टान पर................
रेलिंग पर झुके हुए प्यार     और 
विवस्त्रा के ब्रा के टूटे हुए हूक    और
पार्क की झाड़ियों की खुसफुसाहट   और   
हाँफती     हुई     गलियाँ       और 
उपासना गृह की बदहवासी /
इन सबों में से 
कोई नहीं बज सकेंगे
पियानो की नसों पर  /  अब 
कोई भी कर्ण नहीं करेगा दान अपने कवच  /  अब वह अहमियत में तनने से पहले 
फिर से टूटा है एक बार  /  पर इस बार 
उल्का की तरह टूटा है और अब वह 
कभी नहीं बैठेगा 
प्रार्थना की मुद्रा में ................

प्रभात सरसिज

* पतसंडा - बिहार का एक गाँव एवं कवि का जन्म-स्थान, जिसे अब गिद्धौर के नाम से जाना जाता है


(कोषा, पटना के जुलाई ७२ अंक में प्रकाशित) 

डोन जुआन

एशिया के
इस छोटे से गाँव में 
पतझड़ एक सौ बासठवीं बार आया है
एक सौ बासठ बार हवा तेज - तेज चली है
एक सौ बासठ बार सारे वृक्षों की पत्तियाँ 
जड़ों को समर्पित हुई हैं 
रेत के अन्धड़ में फँसते
बरौनियों में फंसाए समुद्री घास 
तुम कैसे चले आये यहाँ 
इस वक्त  डोन जुआन !
जबकि 
कविता में
पराक्रमी योद्धा अभी 
पसीने से तर-बतर नहीं हुआ है

आओ डोन जुआन !
स्वागत है
लबादे में छिपे अपने बदन को
बाहर करो 
बगल में दबाये खंजर को
यहाँ रखो  -  मेरी खुली कलम के पास
इस झुके टोप को हटाओ
ढके भौंहों में 
पूरब की हवा लगने दो
लो यह अंगोछा 
पसीने के नमक की धारियाँ
ललाट पर उग आई हैं 
पोंछ डालो 
यह मेड्रिड नहीं 
तुम्हारी जानी-पहचानी 
सड़कें गलियाँ नहीं हैं यहाँ 
फिर भी तुम्हें पहचान गया 
इसलिए कि
तुम्हारी आँखों के समुद्र में 
खारा पानी के अलावा 
भीगे रेत झलक रहे हैं 

यह सही है कि 
तुम जैसे लोगों की 
बाढ़ है दुनिया में 
इसलिए कठिन है तुम्हें पहचानना 
दुनिया के ढीठ सूरमाओं की तरह 
तुम भी नहीं चाहते कि बेवजह
बादशाह से हो तुम्हारा सामना 
फिर भी निष्कासन के आदेश को तोड़ 
तुम चले ही जाते हो मेड्रिड 
जिस धरती पर 
गिटारों पर गूँजते हैं तुम्हारे गीत 
जिन गीतों में 
धडकनें उठती - गिरती हैं   इस तरह 
जैसे कगार पर लहरें पछाड़ खाती हैं 

न्यायिक द्वन्द-युद्ध में 
कमांडर को मौत की घाट उतारने वाला 
तुम्हारा यह निर्मम खंजर 
आज मेरी खुली कलम के बगल में है 
प्यार को संगीत में ढ़ालने वाली 
तुम्हारी कविताएँ मेरे कंठ में हैं
तुम्हारे गीतों में 
तेजपत्तों की महक है
मधुर पवन के आगमन के लिए 
बार-बार छज्जे की खिड़कियों को 
खोल देते हैं तुम्हारे शब्द 
स्याही घुले-मिले नीले आसमान में 
चमकता है उजला चाँद 
तुम्हारे गीतों की पंक्तियों से
बहुत दूर है अमावस 
कभी नहीं ढलती है जवानी तुम्हारे गीतों में 
गिटार पर जब भी 
ध्वनित होते हैं तुम्हारे गीत 
तो ठहर जाता है मधुर पवन 
ऐसे क्षणों में 
पेरिस के श्याम - नभ में 
बादल छा जाते हैं 

सीने पर अचूक वार करने वाला 
तुम्हारा खंजर अभी चुप है 
समय आने पर 
ठीक दिल पर करता है यह तिकोना घाव 
वैसे 
दुष्ट के शव को 
ठिकाना लगाने से पहले 
अपनी प्रियतमा को बेतहासा चूमने की
तुम्हारी चाहत
तुम्हारी गीतों के टेक हैं 

स्वागत है डोन जुआन !
अब एक बारगी 
एक सौ बासठ बार 
तुम्हारा स्वागत है एशिया के इस गाँव में 
इसी गाँव के 
बीचो-बीच बहती है एक पहाड़ी नदी 
जिसका पानी 
डोना अन्ना के 
शांतिमय चुम्बन की तरह शीतल है
जबकि अभी इस कविता में 
पराक्रमी योद्धा 
पसीने से तर-बतर नहीं हुआ है 
कुछ समय तक 
एशिया के इसी गाँव में विश्राम करो डोन जुआन !
क्योंकि 
कठोर पाषाणी पंजा 
इस बार के न्यायिक द्वन्द युद्ध में 
भहरा कर टूट जाने वाला है 

प्रभात सरसिज
पतझड़, १९९२ 

१. डोन जुआन - महाकवि पुश्किन रचित "पाषाणी अतिथि" काव्य-नाटिका का नायक (रचनाकाल : पतझड़, १८३०)
२. मेड्रिड - एक शहर का नाम 
३. कमांडर - कमांडर की मृत्यु डोन जुआन द्वारा न्यायिक द्वन्द-युद्ध में हुई थी 
४. डोना अन्ना - कमांडर की विधवा पत्नी / कमांडर की समाधि के पीले मरमर पत्थर पर सिर टिकाई डोना अन्ना को देख डोन जुआन मोहित हो गया था / डोना अन्ना से उसका अंतिम और वास्तविक प्रेम था जो सूत्रबद्ध नहीं हो पाया  

Friday, 23 September 2011

रंगों में विस्फोट

*
जब हवा में लहरियाँ बनाती हुयीं ध्वनियाँ
कांप रही थीं      ठीक उसी समय अभिव्यक्ति को
बाँहों की तरह कटकर 
गिरते देखा था        यह एक स्वप्न था    यथार्थ का स्वप्न
वह स्वप्न जो गुरुत्व के अस्तित्व को अस्वीकार 
आसमान को सुराख़ में बदल देता है  और 
मैं आधार-रहित नीली सुराख़ में   
उतर पड़ा था    स्वप्न से साक्षात्कार करने के लिए
सब कुछ छोड़ कर आया था    सारे दृश्यों से दूर
यहाँ न चट्टान पर पछाड़ खाती लहरें हैं 
न बनस्पतियों को सिहराने वाली हवाएं
न होठों पर जड़ी प्रार्थनाएं 
और न मंदिरों की पार्श्वछायाएं ही
चारों ओर केवल
सुराख़ का शांत नीला रंग
पसरा हुआ है
रंग मुझे याददाश्तों में घसीटता है   और
मुझे पीठ पर जमें बेंत के 
नीले निशान याद आते हैं      यही रंग मुझे 
सुराख़ की विश्रांति से काट      रुखड़ी जमीन का 
स्पर्श करा देता है       और यह जमीन
मेरे चिदाकाश में एक तस्वीर के मानिन्द है
तस्वीर में पीठ है      पथ पर नीले निशान हैं    और
बीचोबीच दर्द करती हुयी रीढ़ की हड्डी 
रीढ़ झुकती है       मैं इसे महसूस तो 
कर सकता हूँ पूरी छूट के साथ      पर देख नहीं सकता 
नीली सुराख़ में मैं 
मुट्ठियाँ भींचे उतर रहा हूँ      सारे शरीर में 
अकड़न -सा महसूस करते हुए     आहट  स्पर्श और गंध
से दूर      लेकिन दृश्यों से कंधे रगड़ता 


*
इस तरह का अहसास मुझे 
कई संदर्भों से जोड़ता है     और रंग मुझे 
इस प्रक्रिया में सहायता करता है 
एकाएक रंगों ने करामात की    और
पूरे नीलेपन में एक घटना की तरह आकाशगंगा फ़ैल गई 
स्पष्ट अक्षरों जैसे तारक-दल सजते गए 
इन्हीं अक्षरों में कहीं मेरी अभिव्यक्ति है    जिसे 
बाहों की तरह कटकर गिरते देखा था 
हठात अक्षरों में विस्फोट होता है    और 
आकार लेते हुए तारक-दल जुलूस में बदल जाते हैं 
इन्हीं विस्फोटों के बीच  द्युति की तरह 
एक बार अभिव्यक्ति कौंधी थी 


*
जुलूस नजदीक आ रहे हैं      इतने नंग-धरंग लोग
सभी के हाथों में रक्तिम पलाश
पूरे नीलेपन में पलाश का रंग नीली नसों में 
रक्त-कणों के संचरित होने का अहसास कराता है 
नंग-धरंग काले लोगों की नीली नसों में लाल रक्त
उपमाओं का ऐसा मूर्त रूप मुझे 
पहली बार देखने को मिला था 


*
रंगों का यह रेला
अंजुरियों में भरे अभिमंत्रित जल को
उलट देता है      जो
इन वस्त्रहीनों के खिलाफ रची गई एक साजिश थी 
द्युतिमान शिलाओं पर बैठ जल को
अभिमंत्रित करने के उपक्रम में जुटे हुए लोग
देवयोनि में अपने जन्म लेने का दंभ भर रहे हैं 
विलास को गरिमा और पूर्वजन्म के कर्मफल ज्ञापित 
करने वाले       अब हर परिवर्तन को 
अपशकुन समझ रहे हैं 


*
रक्तिम पलाश से निकले रंगों की कलाबाजियाँ
पूर्ण बदलाव की कामशक्ति है


*
काले बाजुओं की उछरतीं नीली नसों में 
प्रवाहमान ये रक्तिम-कण किरणों के पुंज में तब्दील हो रहे हैं 
ये किरणें 
उद्धत भीलों की प्रत्यंचा पर कसे बाण हैं     जो
नाभिनालबद्ध रत्नजड़ित मस्तकों की ओर सधे हैं     
अजस्र किरणों की तरह बाणों को देखकर 
द्युतिमान शिलाओं पर बैठे हुए लोग 
भयाक्रांत होने लगे हैं 
अपने होठों पर 
अस्फुट मंत्र उच्चारते ये 
अपनी सुरक्षा में नीली सुराख की ओर बढ़ते हैं    जहाँ
रंगों के पहरे हैं     और 
रंग कुशल प्रहरी हैं 


*
इन्हीं रंगों की परिव्याप्ति में 
मैं और नीचे उतर आता हूँ    हठात 
रंगों में एक और विस्फोट होता है    और 
मेरे पैर आधार ग्रहण कर लेते हैं
यहीं पर बाण तैयार हो रहे हैं     और
काले हाथों को तरकश सौंपती 
और कोई नहीं     बल्कि
मेरी ही अभिव्यक्ति है     जो
अब कभी भी बाँहों की तरह कट कर नहीं गिरेगी 

प्रभात सरसिज

नदी और मछली

*
............... और नदी है कि
बहती चली जाती है
किनारों से टकराकर धाराएँ
लहरों की गति के गीत को
संगत दे रही हैं
उसकी अदम्य त्वरा 
चुनौती दे रही है जवान मछलियों को


*
धाराओं के अनुकूल 
टूटी टहनियाँ और नारियल बहते हैं
पर मछलियाँ जवान हैं
चुनौतियाँ उन्हें मंजूर हैं 
वे मूंगे के पहाड़ों के गहवरों में 
तैय्यारी में जुटी हैं कि 
इस बार नदी से ही
प्रतिकूलता का रहस्य जान लेना है
बड़ी ही गबरू और मरजानी हैं मछलियाँ


*
मछलियाँ और नदियाँ मित्र हैं
और दोनों जानती हैं कि
यकायक कुछ नहीं बदलता
फिर 
मगरमच्छ का तख़्त तो काफी मजबूत है


*
नदियों की चुनौतियाँ
मछलियों के प्रशिक्षण के 
अध्याय हैं 
नदियाँ उच्चारती हैं प्रतिकूलता के मंत्र
और मछलियाँ सजग कानों से सुन रही हैं
मंत्रमुग्ध लौट रही हैं
झुण्ड के झुण्ड 
एक सामूहिक रणनीति तय करने के लिए
मूंगे के पहाड़ों की दरार में
जहाँ मगरमच्छ को 
पहुँचने का साहस नहीं होता


*
मछलियाँ गलफर फुलाकर
आक्रोश व्यक्त कर रही हैं और
सामूहिक शक्ति को कारगर बनाने के उपाय ढूंढ़ रही हैं
मछलियाँ निराशा से अपरिचित हैं
संघर्ष में रत घायल या 
मृत सहयात्रियों की गिनती कर
मातम मनाने पर समय बर्बाद नहीं करतीं
बल्कि अहर्निश तैय्यारी और हमले के
क्रम को एकबद्ध करती रहती हैं
तैय्यारी और हमले
क्रमशः लय और ताल हैं
दोनों से निबद्ध मछलियाँ
क्रांति-गीत की सर्जना करती रहती हैं 
और नदी है कि बहती चली जाती है


*
नदी मित्र है और प्रसूति-गृह भी
और प्रशिक्षण के दरम्यान नटों की तरह
कलाबाजियाँ भी सिखाती है मछलियों को


*
मछलियाँ 
मूंगे के पहाड़ों से निकलकर 
वेग से बढ़ती जा रही हैं
धाराओं को चीरती हुयीं
जल के अणुओं को तोड़कर 
आक्सीजन को तीव्रता से अपने गलफरों में भरती हुयीं 
कभी एक कदम पीछे
कभी दो कदम आगे
टोह लगाती मछलियाँ
ठुमुक-ठुमुक कर चली जा रही हैं


*
मछलियाँ जानती हैं कि
यकायक कुछ नहीं बदलता 
अगले मूंगे के पहाड़ के गहवर को
मछलियों ने विश्राम - स्थल बनाया है
अब यहाँ से
उन सम्भावित ठिकानों की ओर बढ़ना है 
जिधर शत्रु छिपता हुआ भाग रहा है
इस बार अपनी चाल को
बंकिमता भी देनी है


प्रभात सरसिज 

रोहन तप रहा है

रोहन तप रहा है   और 
शेष सदी की पेंदी से 
निकल रहा है समय
धूप एक घड़ी मारकर
तुम्हारी
हथेली की तरह
खुरदरी हो जाएगी

ठीकेदार के डम्फर पर सवार होकर
अब तुम पहुँचोगी ही बसुमती !
पहुँचोगी और
अन्य कामिनों पर नजर पड़ते ही 
तुम्हारी हँसी
बिखर जाएगी जैसे
सूखे सरसों की 
फलियों को छूते ही
छर-छर दाने निकल पड़ते हैं

क्वरी साइट पर 
रात ही में 
डाइनामाईट से चोट खाकर 
हडबडाती हुयी चट्टानें 
पहाड़ के पेट को चीर
बाहर लुढ़क गयी हैं
तुम्हारी दृष्टि पड़ते ही
मुलायम हो जाएँगी ये चट्टानें

देखते ही देखते
तुम्हारे हाथों में धारित घनों से
बोल्डर और चीप्स बन जाएँगी ये चट्टानें
शाम होते ही
भर जायेगा ठीकेदार का डम्फर

बही पर अंगूठा लगाने के वक्त
कनकौवे की तरह
देखेगा तुम्हे मुंशी
ऐसे वक्त में 
अपनी पेशानियों पर 
चुहचुहा आये पसीने को
नफरत से पोंछ दोगी
अपनी खुरदरी उँगलियों से 
और तुम्हारी बिन्दी
और भी चौड़ी
और भी सूर्ख हो जाएगी
जबकि

रोहन तप रहा है   और
शेष सदी की पेंदी से 
तेजी से निकल रहा है समय

प्रभात सरसिज
७ अगस्त, १९८६

Monday, 19 September 2011

अछूती धरती

सारी आँधियों को
ठेंगा दिखाता खरबूजा पक गया
खरबूजा -
धूप में स्वर्ण-पिंड के सदृश चमकता 
छोटा होते हुए भी
खरबूजा पत्थर की तरह भारी है
अछूती धरती पर 
उगे पहले खरबूजे का स्वाद
दूसरों की जीभ तक पहुँचाना चाहते हैं किसान

अछूती धरती पर
पहली बार खिले हैं कपास
श्वेत और पाटलवर्णी हो रहे हैं खेत
मंद झोंकों के इशारे पर 
कपास के फूल एक साथ हिलकर 
अभिनन्दन करते हैं

न जाने कहाँ तक है अछूती धरती का विस्तार
बीजों के लिए
तड़प रही है अछूती धरती
सप्राण होती हैं समस्त धरती
अनुर्वर नहीं रहना चाहती है धरती
आँधी और गरमी के
शिकंजे में जकड़ी 
उकता चुकी है धरती

अछूती धरती के विस्तार पर भी
फैलती है आकाश की
कांतिमय नीलिमा
हल की बाट जोह रही है धरती
अछूती धरती अपने जीवन-वृक्ष से 
झाड़ना चाहती है मधुर फल

प्रभात सरसिज
२८ अक्टूबर, १९९४

ग्राम - जागरण

जाग रहा है गाँव
गाँव को भोर का स्वागत करना है
निद्रामग्न गाँव के
अलसतन को
दुलार रहा है निर्मल मंद पवन
ओंस-सिक्त शीतलता से
लरज रहा है गाँव का बदन

बगल की पहाड़ी नदी का
कल-कल करता जलप्रवाह किसानों को
बुला रहा है अपने
वक्ष पर झुकने के लिए
नदी - तल में
मर्मर ध्वनि करते हैं कंकड़ 
अद्भुत अतीत से 
उच्चरित होते आये हैं ये स्वर

किनारे की धार को
जगह - जगह रोक रही हैं बनस्पतियाँ
पानी पुलकित हो रहा है -
बनस्पतियों की जड़ों के पास डबरे बनाता 
शरद के भोर के
अगम्य आगमन की पदचाप
साफ़-साफ़ सुनाई पड़ रही है
जाग रहा है गाँव

प्रभात सरसिज
३१ अक्टूबर, १९९४

जंग

जंग कोई भी हो
जंग में अनिवार्य रूप से उलझते हैं भाग्य
जंग नहीं होती है मात्र 
दृष्टिकोणों का टकराव 
मोर्चे की रेखा 
हमारे दिलों से गुजरती है
लड़ते हैं प्रतिद्वन्दी विचारधाराओं के शिविर 
सहमत - असहमत गुटों के बीच
छिड़ती है लड़ाई

जंग में
अहर्निश जागता है ह्रदय 
अपने आस - पास
होने वाली बातों पर ह्रदय 
सहानुभूतिपूर्ण प्रतिक्रिया दिखाता है
पहली नजर में
अहानिकारक लगती है जंग
लेकिन छिड़ती है जंग तो
मर - कट जाते हैं लोग
बचे हुए लोग जारी रखते हैं जंग
बुद्धि और विवेक
हो जाते हैं कटु और प्रचण्ड
कोई - कोई तो 
शक्ति की परवाह किये बिना
भाड़ में अकेले चने की तरह लड़ते हैं
तवारीख़ में
उनका नाम होता है दर्ज
जंग के बाद
जीवन के शाश्वत - विजय की गूंज
गीतों में अपनी जगह बनाती है

प्रभात सरसिज
२६ अक्टूबर, १९९४

बेसब्र नहीं हैं न्यायाधीश

अदालत अभी बुढ़िया नहीं हुई है
लेकिन 
न्यायाधीश के सभी बाल सफ़ेद हो गए

परेशान हैं न्यायाधीश
लाचार हैं न्यायाधीश
बीच-बीच में 
घुस आते हैं संविधान-संशोधन के गीदड़ 
गीदड़ कानून की किताब पर
राल टपकाते हुए बैठ जाते हैं

बदरंग लाल जाकेट पहनी अदालत
परेशान है
संसद के दरवाजे से निकल 
अदालत के दरवाजे में
क्यों घुस जाते हैं गीदड़ ?

तमतमा रहे हैं बूढ़े न्यायाधीश
न्यायाधीश के माथे पर बल पड़े हैं
उनकी चेतना में
रह-रहकर कौंधते हैं विचार
अभी बेसब्र नहीं हुए हैं न्यायाधीश
क्योंकि अदालत
अभी तक बुढ़िया नहीं हुई है

प्रभात सरसिज
२६ अक्टूबर, १९९४

कोमल गूंज के गुरु - स्वर

रात भर के तर्क के बाद
सुबह से ही पत्तियाँ
फुसफुसा रही हैं आपस में कि
मैत्री से ही समृद्ध होती है दुनिया
पत्तियों की 
इस कोमल गूंज के 
गुरु - स्वर से
आतंकित हुए हैं अदूरदर्शी मनसूबेवाज़

वीराने में भी
नहीं होता है मूक रात का संगीत
बांसुरी के मंद सुरों में
जैसे ही गूंथते मानव-स्वर कि
नदियाँ बंद करती हैं धमकाना 
देखती हैं नदियाँ मलमल के 
बादलों से जाज्वल्यमान आकाशगंगा को
तो तरंगें सजाने लग जाती हैं
किनारों को फेन की झालरों से 
जलागार की 
अंधकारमय लहरियों में 
प्रतिबिम्बित होने लगती है चाँद की तश्तरी 

अरगनी चढ़ 
गौरैया कहती है -
'मुझसे डरने लगे तो कर ली जई की बोवाई'
गौरैया कहती है -
उठो,
पत्तियाँ आपस में फुसफुसा रही हैं  
कोहनियों पर आस्तीनें चढ़ाने का
यही उपयुक्त समय है
पत्तियाँ कह रही हैं -
जल्दी करो,
मैत्री से ही समृद्ध होती है दुनिया
इधर फुसफुसा रही हैं पत्तियाँ
उधर
हिलने लगे हैं अदूरदर्शी मनसूबेवाज के दाँत

प्रभात सरसिज
१७ अक्टूबर, १९९४ 

Saturday, 17 September 2011

सोच समझ कर

तुमने आज रखे कपोल
मेरे झुके कंधे पर
वेदना के जल से
सिंच रहा है कंधा
कविता में सुबकना चाहते हैं गीत

तुम डूबी हो आज अवसाद में
काटे जा रहे हैं जंगल से 
जवान पेड़

कुल्हाड़े लपक रहे हैं पेड़ों की जड़ों के पास
लकड़हारे के माथे से
बह रही है पसीने की नदी
लकड़हारे पेड़ काट रहे हैं
अपने वंश के 
लोगों के पैर काट रहे हैं लकड़हारे

क्यों नहीं इनकार कर पाते लकड़हारे
कि अपने पैरों पर 
अपने कुल-वंश के
घुटनों कमर कंधों पर
नहीं चलाएंगे कुल्हाड़े ?
क्यों नहीं मुड़ रहे कुल्हाड़े उस ओर
जिधर
पेड़ की जगह
मशीन लगाने को तत्पर
प्राक्कलन पर आँख गड़ाए हैं हत्यारे ?


सदियों से जंगल घर था लकड़हारों का
पेड़ थे उनके सगे
शहर के बनिए का कब से हो गया जंगल ?

लकड़हारे से मधु लेकर
बदले में नून देने वाले बनिए
सत्ता के साथ
जंगल पर काबिज हैं
मजबूर है लकड़हारे
अपने ही पैर और भविष्य काट रहे हैं लकड़हारे

तुम जानती हो मजबूरी कि
नगर में बस जाने के बाद भी
पेड़ से रिश्ता रखने वाले कवि ने
क्यों फाँसी लगाकर आत्महत्या कर ली ?

तुम जानती हो मजबूरी
सोच-समझ कर 
तुमने आज रखे कपोल
मेरे झुके कंधे पर
वेदना के जल से सिंच रहा है कंधा 
गीतों में
पहली बार पेड़ के खिलाफ जाने से
इनकार कर रहे हैं लकड़हारे
गीतों में कुल्हाड़े पेड़ों पर 
नहीं करना चाहते अब आघात
खूब सोच-समझ कर 
तुमने रखे कपोल
मेरे झुके कंधे पर..............

प्रभात सरसिज
२३ फ़रवरी, १९९२
(२५ सितम्बर, १९९२ को भागलपुर आकाशवाणी से प्रसारित)