Monday, 29 August 2011

तुम्हारी याद


कितनी अवगम्य थी तुम्हारी याद
हृदय की संवेदनशील उदारता 
चेहरे पर
त्योहार की -सी ख़ुशी रहती थी


सहसा तुम्हारी याद आयी
जैसे
इस पुराने मकान की दीवार से
झाँकने लगे पीपल के पौध
जैसे  
कई दिनों बाद 
फोन के निर्जीव खम्भे पर पीली चिड़ियाँ बैठी
याद आयी
बात-बात पर 
खिल-खिल पड़ने वाली हँसी
हँसी से ठिठक पड़े थे हेमंत के बादल
हवा में सरसराहट थी 
दूब एक-दूसरे के कंधे छूने लगे थे


सहसा तुम्हारी याद आयी
रक्त में हरकत करती हुई
तुम्हारी याद उदासी की काई को तोड़ती है
ज्यों
मन के एकांत पोखर में
फैलती है सिंघारे की लतर


मानसून के थपेड़ों के बीच
जल के संभार से भारी हुई धरती
ज्यों सूरज की याद करती है
वैसे ही
सहसा याद आयी तुम्हारी

प्रभात सरसिज
२९ जुलाई, १९९२

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