Monday, 29 August 2011

याद किया


(तुम्हारी याद से कृतज्ञ होती हैं स्मृतियाँ) 


मैंने तुम्हें याद किया
जैसे
गर्म झरने की धार से
थोड़ा हटकर न जाने कब से पड़ा है
एक भारी चट्टान
जैसे
नदी के ऊपर ठहरी रात को 
चीरती चली जाती है किसी वन-पाखी की चीख
जैसे 
बुखार जैसे गर्म दिनों में 
भर दुपहर
बरगद के खोखल से
उगते हैं बाँसुरी के बोझिल स्वर
मैंने तुम्हें याद किया

अटल में बह रही 
खनिजों की नदी के किनारे
तुम खिली हो 
खनिजों के गर्म भपारों में
घुली है तुम्हारी सुगंध जो 
हरसिंगार की जड़ों से होकर 
पहुँची मुझ तक

देखो !  पृथ्वी के
सारे पुष्प टूटकर जाना चाहते हैं तुम्हारे पास
वे सिमट-लिपट जाना चाहते हैं तुम्हारे गुरुत्व से
वे मर मिटकर लौटना चाहते हैं तुम्हारी दी हुई सुगंध
वे जाना चाहते हैं तुम तक

याद होगी तुम्हें वह घड़ी
जब रात के गात बेहद साँवले थे
ब्रह्मांडीय हवा में
झिलमिला रहा था सितारों का दर्पण 
हमने साथ-साथ मनाया था -
सृजन का उल्लास-पर्व
मैंने तुम्हारी आँखों के गोलकों को उझक कर देखा
देखा कि पृथ्वी नाच रही थी
फिर से आज
मैंने याद किया है तुमको
आज भी रात के गात बेहद साँवले हैं


प्रभात सरसिज
२६ फ़रवरी, १९९२ 

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