Monday, 29 August 2011

जाओ आराम करो गुलरुखसार*

इतनी रात में 
सड़क पर क्यों घूम रही हो गुलरुखसार ?
जाओ
अपने होटल के कमरे में आराम करो 
तुमने पिचके हुए पेट 
और धूल से भरे चेहरे वाले
बेघर भूखे बच्चे को देख लिया तो क्या हुआ ?
देख ही लिया था शाम में
तो रात में क्यों निकली हो बटुआ लेकर ?
जाओ होटल में सो जाओ
कल बहुत सारे भूखे बच्चे 
देखने को मिल जायेंगे 

इस देश का दिल है दिल्ली
इसकी धड़कन हैं ये फुटपाथ 
धड़कनों के नजदीक हैं ऐसे बच्चे
फुटपाथ पर ही सोना है भूखे बच्चों को
ताजिकिस्तान की जितनी जनसंख्या है
उससे कई गुना भूखे बच्चे होंगे इस
महान देश में गुलरुखसार !


नाहक तुम
जहमत उठा रही हो इस रात में
चकरघिन्नी की तरह नाचते
तुम्हारे दिमाग में
क्या फ़ितूर समा गया है कि
रोटी के निवाले की तरह
बेचैन हो गई हो
भूखे बच्चों तक पहुँचने के लिए


हाँ,  ठीक ही कहा तुमने -
'इस देश में एक-एक सिक्का कीमती है'
एक बात कहूँ गुलरुखसार !
तुम कविता में मेरी बातें 
उजागर मत कर देना !
वह यह कि
भूखे बच्चे और कवि
सहजात हैं इस देश में
कवि 
अपनी भूख की आँच से ही
अपनी संवेदनाओं को सुर्ख बनाते हैं

इस निर्मम रातों के बाद
एक सुबह ऐसी होगी गुलरुखसार !
जिसमें इस देश के सभी बच्चे
राजधानी की सड़कों पर जमा होकर
सुर्ख संवेदनाओं की कविता को
जोर-जोर से पढने लगेंगे.............


* गुलरुखसार सफियेवा - लोकप्रिय ताज़िक कवयित्री 



प्रभात सरसिज
४ जून, १९९२ 

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