कपास की तरह बिखरा है कुहरा
कुहरे में भीगी-सिमटी है रजनीगंधा
उडहुल झुककर सूंघता है शीश
वे खोलना चाहते हैं कामनाओं के रुमाल
रुमाल के तहों में कहीं ताप ज़िंदा है
एक नयी रचना बाहर आना चाहती है
वे तय करते हैं
कुहरा के जाने के बाद भी
जाहिर करते रहेंगे अपने सम्बन्ध
और
अगले मौसम की क्रूरता का
विरोध करेंगे साथ-साथ
प्रभात सरसिज
२२ फ़रवरी, १९९२
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