Sunday, 28 August 2011

स्वर

भयभीत हैं स्वर
स्वर कातर हैं  
प्यासे कंठ की तरह रुक्ष हैं स्वर
स्वर थरथरा रहे हैं बांसुरी के

सावन नहीं बरसा 
भादो नहीं बरसा 
सूखे पनघट पर सिसक रहे हैं स्वर
बांसुरी के स्वर कर्कश बन
प्रवेश करना चाहते हैं -
जिला कलक्टर के घर


प्रभात सरसिज
१५ अगस्त, १९९४
  

No comments:

Post a Comment