Wednesday, 31 August 2011

अवतार

उपासना - गृह से  
बदहवास होकर 
सभी विनीत शब्द भाग रहे हैं
पृथ्वी पर सामुहिक रुदन को 
सम्भावित करने के लिए ही
हुआ है यह अवतार


प्रभु आये हैं
दोस्त बन हाथ मिला रहे हैं दस्ताने पहन
अपार करुणा दर्शाते हुए
मेरे गालों पर बजा रहे हैं तालियाँ
कबूतर के नरम पेट में
कलम धसाते
अपनी नयी भाषा का मेहराब लगा रहे हैं


कवि नजूमी बने हैं
इतिहासकार की हथेली फैली है
अनावृत  हैं योद्धाओं की छातियाँ
पृथ्वी की पीठ पर नए अर्थ की
चाबुकें पड़ रही हैं लगातार................

प्रभात सरसिज
२५ अगस्त, १९९४ 

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