Wednesday, 31 August 2011

पहाड़ (सात)

पहाड़ की तलहटी में लेटा
मैं देखता हूँ पहाड़
धरती के धागे से
एक पहाड़ मिलते हैं दूसरे पहाड़ से
जबकि 
पहाड़ के पुल के सहारे 
मिल रहा है धरती से आकाश 

तलहटी में लेटा
पहाड़ से आती बयार को
फेफड़े में भरता हुआ सोचता हूँ कि
समुद्र जब भी लेगा करवट 
प्लावन होगी धरती
फिर भी बचा रहेगा पहाड़
बची रहेगी पहाड़ भर धरती समुद्र के अन्दर
पहाड़ पर बचा रहेगा देवदारु
देवदारु के कपोल पर 
लिखी जाएगी कविता की प्रथम - पंक्ति 
फिर पहाड़ पर आएगा बसंत 
आएगी एक कोयल और
लगाएगी पहाड़ का चक्कर
आकाश-नक्षत्र गायेंगे पहाड़ की
गरिमा के गीत
मनाया जायेगा प्रथम-सृजन का
उल्लास-पर्व

प्रभात सरसिज
६ जुलाई, १९९२

खोलेगा रहस्य

प्रकट हुए हैं शब्द
अर्थों के मांस में फाँस की तरह अटके
प्रतिगामी आशयों को निस्तेज करते
सूर्याभिमुख हुए हैं आज 

कामगारों के मान-आन की आभा से
प्रदीप्त हुए हैं शब्द 
शरत के शोख बादलों की तरह
अलंघ्य उन्नत शिखरों पर
घनीभूत हुए हैं आज

सूर्याभिमुख शब्द दिनान्त के बाद
अहोरात्री में प्रहरी बन अड़ेंगे
प्रस्थान करेंगे अँधेरे के खिलाफ
शब्दों का प्रकाश-प्रकर्ष ही आज 
खोलेगा पृथ्वी का रहस्य

प्रभात सरसिज
२४ सितम्बर, १९९४ 

कुहरा

कुहरा है 
कपास की तरह बिखरा है कुहरा

कुहरे में भीगी-सिमटी है रजनीगंधा
उडहुल झुककर सूंघता है शीश
वे खोलना चाहते हैं कामनाओं के रुमाल
रुमाल के तहों में कहीं ताप ज़िंदा है
एक नयी रचना बाहर आना चाहती है

वे तय करते हैं 
कुहरा के जाने के बाद भी 
जाहिर करते रहेंगे अपने सम्बन्ध
और 
अगले मौसम की क्रूरता का 
विरोध करेंगे साथ-साथ

प्रभात सरसिज
२२ फ़रवरी, १९९२ 

दहकेंगे फूल

आज फूल  दहकेंगे

लाऊंगा फूल 
छू सकोगी तुम फूल
इन पर कल तितलियाँ लगी थीं 
आज
तुम्हारी हथेलियों में गंध है हल्दी की 


कल सुबह 
इनकी पंखुड़ियों का 
कन्धा बनाया था बुलबुल ने 
आज
गजरा बन गाजेंगे तुम्हारे शीश पर 

कल 
फूल से सटे थे यात्रा में थके 
दो पाखी
फिर नयी उड़ान पर चल पड़े
उड़ान से पहले इनके चोंच मिले थे
आज वही फूल लाऊंगा
तुम्हारे बेसर को अपना दर्पण बनायेंगे फूल
तुम्हारे होंठों के वंशधर हैं फूल
सजे सुशोभित होते हैं फूल - जैसे
सांस्कृतिक मोर्चा की बैठकों के अध्यक्ष-मंडल 
हमारे-तुम्हारे प्यार की तरफदारी करते हैं फूल
हत्या-अन्याय का विरोध करते हैं फूल

आज लाऊंगा फूल
छू सकोगी तुम फूल
कल फूल महके थे
आज दहकेंगे फूल

प्रभात सरसिज
२३ फरवरी, १९९२ 

अवतार

उपासना - गृह से  
बदहवास होकर 
सभी विनीत शब्द भाग रहे हैं
पृथ्वी पर सामुहिक रुदन को 
सम्भावित करने के लिए ही
हुआ है यह अवतार


प्रभु आये हैं
दोस्त बन हाथ मिला रहे हैं दस्ताने पहन
अपार करुणा दर्शाते हुए
मेरे गालों पर बजा रहे हैं तालियाँ
कबूतर के नरम पेट में
कलम धसाते
अपनी नयी भाषा का मेहराब लगा रहे हैं


कवि नजूमी बने हैं
इतिहासकार की हथेली फैली है
अनावृत  हैं योद्धाओं की छातियाँ
पृथ्वी की पीठ पर नए अर्थ की
चाबुकें पड़ रही हैं लगातार................

प्रभात सरसिज
२५ अगस्त, १९९४ 

Monday, 29 August 2011

जाओ आराम करो गुलरुखसार*

इतनी रात में 
सड़क पर क्यों घूम रही हो गुलरुखसार ?
जाओ
अपने होटल के कमरे में आराम करो 
तुमने पिचके हुए पेट 
और धूल से भरे चेहरे वाले
बेघर भूखे बच्चे को देख लिया तो क्या हुआ ?
देख ही लिया था शाम में
तो रात में क्यों निकली हो बटुआ लेकर ?
जाओ होटल में सो जाओ
कल बहुत सारे भूखे बच्चे 
देखने को मिल जायेंगे 

इस देश का दिल है दिल्ली
इसकी धड़कन हैं ये फुटपाथ 
धड़कनों के नजदीक हैं ऐसे बच्चे
फुटपाथ पर ही सोना है भूखे बच्चों को
ताजिकिस्तान की जितनी जनसंख्या है
उससे कई गुना भूखे बच्चे होंगे इस
महान देश में गुलरुखसार !


नाहक तुम
जहमत उठा रही हो इस रात में
चकरघिन्नी की तरह नाचते
तुम्हारे दिमाग में
क्या फ़ितूर समा गया है कि
रोटी के निवाले की तरह
बेचैन हो गई हो
भूखे बच्चों तक पहुँचने के लिए


हाँ,  ठीक ही कहा तुमने -
'इस देश में एक-एक सिक्का कीमती है'
एक बात कहूँ गुलरुखसार !
तुम कविता में मेरी बातें 
उजागर मत कर देना !
वह यह कि
भूखे बच्चे और कवि
सहजात हैं इस देश में
कवि 
अपनी भूख की आँच से ही
अपनी संवेदनाओं को सुर्ख बनाते हैं

इस निर्मम रातों के बाद
एक सुबह ऐसी होगी गुलरुखसार !
जिसमें इस देश के सभी बच्चे
राजधानी की सड़कों पर जमा होकर
सुर्ख संवेदनाओं की कविता को
जोर-जोर से पढने लगेंगे.............


* गुलरुखसार सफियेवा - लोकप्रिय ताज़िक कवयित्री 



प्रभात सरसिज
४ जून, १९९२ 

चुप रहेगा इतिहास

अत्याधुनिक आदिम हवश
पूरी करेंगे वहशी 
अस्थियों के ठाठर की छाती में 
केवल धुकधुकी रहेगी सदी के 
पतन के बाद

जय-पराजय की दुंदुभी 
नहीं बजेगी 
बर्बरता अपनी चोली बदल 
मानवता को अपने बटन से नापेगी
भूखंड विशेष के
आकाश को
स्पुतनिक पर टिका कर
नचाएगी डायन
मेरी ही तरह चुप रहेगा इतिहास
भूगोल उसके छत्र में झालर बन नाचेगा
सदी के पतन के बाद

प्रभात सरसिज
२५ अगस्त, १९९४

याद किया


(तुम्हारी याद से कृतज्ञ होती हैं स्मृतियाँ) 


मैंने तुम्हें याद किया
जैसे
गर्म झरने की धार से
थोड़ा हटकर न जाने कब से पड़ा है
एक भारी चट्टान
जैसे
नदी के ऊपर ठहरी रात को 
चीरती चली जाती है किसी वन-पाखी की चीख
जैसे 
बुखार जैसे गर्म दिनों में 
भर दुपहर
बरगद के खोखल से
उगते हैं बाँसुरी के बोझिल स्वर
मैंने तुम्हें याद किया

अटल में बह रही 
खनिजों की नदी के किनारे
तुम खिली हो 
खनिजों के गर्म भपारों में
घुली है तुम्हारी सुगंध जो 
हरसिंगार की जड़ों से होकर 
पहुँची मुझ तक

देखो !  पृथ्वी के
सारे पुष्प टूटकर जाना चाहते हैं तुम्हारे पास
वे सिमट-लिपट जाना चाहते हैं तुम्हारे गुरुत्व से
वे मर मिटकर लौटना चाहते हैं तुम्हारी दी हुई सुगंध
वे जाना चाहते हैं तुम तक

याद होगी तुम्हें वह घड़ी
जब रात के गात बेहद साँवले थे
ब्रह्मांडीय हवा में
झिलमिला रहा था सितारों का दर्पण 
हमने साथ-साथ मनाया था -
सृजन का उल्लास-पर्व
मैंने तुम्हारी आँखों के गोलकों को उझक कर देखा
देखा कि पृथ्वी नाच रही थी
फिर से आज
मैंने याद किया है तुमको
आज भी रात के गात बेहद साँवले हैं


प्रभात सरसिज
२६ फ़रवरी, १९९२ 

कनहरी के कूबड़* पर

Canary Hill & Lake, Hazaribagh
कनहरी हिल के कूबड़ पर चढ़
प्रतीक्षा कर रहा हूँ
कि कब सूरज उगे
कि कब सुअराज उगे और
अपनी सुनहरी किरणों से कनहरी के पद-प्रान्त के
कण-कण को सोना कर दे
कि पत्ता-पत्ता पन्ना के
असंख्य नगीनों की तरह दमकने लगे 

मैं देखना चाहता हूँ कनहरी के कूबड़ की
सीधी ढलान पर पूरब की ओर झुके 
उस अनाम पौधे को
जिसके कंधे पर
गुच्छा-भर फूल उग आये हैं

प्रतीक्षा कर रहा हूँ कि 
कब सूरज उगे और
कोमल किरणों से छू दे उन 
खिले फूलों की पंखुड़ियों को
जिसका पौधा सूरज की ओर
अपनी बाहें फैलाये हुये है

मैं देखना चाहता हूँ सूर्य की किरणों से
दमकते माणिक के गुच्छे की तरह
इन फूलों को

दुर्गम-स्थल पर खिल आये
इन फूलों को मैं
अपनी दृष्टि से नहलाना चाहता हूँ -
सूर्य की उपस्थिति में 


* हजारीबाग जिले का एक पहाड़ जहाँ घुमंतू सूर्योदय देखने पहुँचते हैं


प्रभात सरसिज 
१० जून, १९९२

तुम्हारी याद


कितनी अवगम्य थी तुम्हारी याद
हृदय की संवेदनशील उदारता 
चेहरे पर
त्योहार की -सी ख़ुशी रहती थी


सहसा तुम्हारी याद आयी
जैसे
इस पुराने मकान की दीवार से
झाँकने लगे पीपल के पौध
जैसे  
कई दिनों बाद 
फोन के निर्जीव खम्भे पर पीली चिड़ियाँ बैठी
याद आयी
बात-बात पर 
खिल-खिल पड़ने वाली हँसी
हँसी से ठिठक पड़े थे हेमंत के बादल
हवा में सरसराहट थी 
दूब एक-दूसरे के कंधे छूने लगे थे


सहसा तुम्हारी याद आयी
रक्त में हरकत करती हुई
तुम्हारी याद उदासी की काई को तोड़ती है
ज्यों
मन के एकांत पोखर में
फैलती है सिंघारे की लतर


मानसून के थपेड़ों के बीच
जल के संभार से भारी हुई धरती
ज्यों सूरज की याद करती है
वैसे ही
सहसा याद आयी तुम्हारी

प्रभात सरसिज
२९ जुलाई, १९९२

गुलाबी छाया

सावन के आकाश को देखती हुई  
लड़की हँस रही है
लड़की की आँखें उधर लगी हैं 
जहाँ पनियाले बादल के पीछे सूरज छुपा है
लड़की की आँखों से 
आँख-मिचौनी कर रहा है सूरज

लड़की हँस रही है आकाश देखती हुई
उसकी व्यस्त मुट्ठियों में 
भरे हुए साग
हसिये पर कट-कट कर करतन बन रहे हैं
लड़की को शातिर निगाह से मत देखो लैंडलॉर्ड !
लड़की की हँसी की ताकत पहचानो
हसिये की धार पर लड़की के होठों की 
गुलाबी छाया पड़ रही है
लड़की हँस है


प्रभात सरसिज
२४ जुलाई, १९९२

विपक्ष में है हवा

हवा तुम्हारे पक्ष में नहीं है

मशक्कत से थकी सांवरी लड़की की
परेशानी को
हेंठ करने वाली हवा     जब
गुस्से में होती है  तो
जल-समूहों के गर्भ को भी कंपा देती है 
अंतरिक्ष-पोल पर जब 
उठा-पटक करती है बादलों को
तो धरती के दृढ़ वृक्ष भी
जड़ों से उखड़ने लगते हैं 
सूर्य को संसार की दृष्टि में
लाने वाली यही हवा
जब करती है किरणों से संसर्ग 
तो मच जाता है जल-संसार में हलचल
फिर
इन्हीं मेघों के कन्धों पर
रखती है कपोल तो 
कौंध उठती हैं बिजलियाँ

 जवान होती इस सांवरी लड़की को 
 लम्पट निगाह से मत देखो लैंडलॉर्ड !
 जवान होती इस लड़की के
 बिल्कुल करीब है हवा
 जबकि
 हवा तुम्हारे पक्ष में नहीं है


प्रभात सरसिज
२८ जुलाई, १९९२

Sunday, 28 August 2011

स्वर

भयभीत हैं स्वर
स्वर कातर हैं  
प्यासे कंठ की तरह रुक्ष हैं स्वर
स्वर थरथरा रहे हैं बांसुरी के

सावन नहीं बरसा 
भादो नहीं बरसा 
सूखे पनघट पर सिसक रहे हैं स्वर
बांसुरी के स्वर कर्कश बन
प्रवेश करना चाहते हैं -
जिला कलक्टर के घर


प्रभात सरसिज
१५ अगस्त, १९९४
  

कछार

माँ आर्द्र थी
नदी का शीतल कछार थी माँ
पिता पीली सरसों के खेत थे
जो कछार तक फैले थे


मैं मंद-पवन
मंद-पवन मैं कछार से उठा
और सरसों के पीले मुरेठों को
छूकर वापस हुआ तो
संपूर्ण कछार सुवासित हो उठा


प्रभात सरसिज
१५ अगस्त, १९९४
 

अपलक

दादा जी हांकते थे विक्टोरिया फिटिन
घोड़ों की चाल पर
जुगलबंदी करती थी
उनके मुरेठे की कलगी


सरगोशी की इच्छा प्रकट होते ही
पसंदीदा ऑस्टिन या मॉरिस के
क्लच-ब्रेक पर
तैनात होते थे पिता के पैर


मैं उनकी स्वीडिस कार चलाता हूँ
उनकी तीन पीढ़ियों से
मेरी तीन पीढ़ियों का अटूट रिश्ता है


जब उनकी सुन्दर पत्नी
रंगीन परिधानों में सज
सवार होती हैं
तो मलिन-वसनों में लिपटी
मेरी संतप्त अर्धांगिनी
देखती है उन्हें अपलक


प्रभात सरसिज
२३ अगस्त, १९९४
   

अस्त होती सदी

सदी कांपती हुयी अस्त हो रही है 

सागर में ठहाके लगाता वह 
बार-बार कहता है -
'तुम्हारे सुरक्षा की जिम्मेवारी 
मुझ पर है'


मेरा वह पहरेदार
अपनी मूंछों में मुस्कुराता हुआ
ठहर-ठहरकर मेरी ओर ही 
तान देता है संगीन 

मेरी थरथराती आवाज 
इस तरह पहुँचती है मेरे रक्षक तक
जैसे बकरे की मिमियाहट 
बूचर के पास 

बेहद कोमल घास है  आज
बकरे के आगे
उसकी पीठ को 
सहला रही हैं बूचर की स्नेहिल हथेलियाँ

और सदी कांपती हुई अस्त हो रही है........................


प्रभात सरसिज
२४ अगस्त, १९९४
  

पत्थर

Shiv Mandir, Deoghar
पत्थर नुकीले बने
पत्थर चले पेट के पक्ष में पशुओं के खिलाफ 

पत्थर और नुकीले बने
पत्थर चले स्वार्थ के पक्ष में भाइयों के खिलाफ

एक पत्थर ने 
इंकार किया नुकीला बनकर चलने से
आदमी ने वहां देवघर बसा दिया


प्रभात सरसिज
१५ अगस्त, १९९४